Remembering Dadaji on his 1st Death Anniversary.
Note: This one is going to be purely in my mother tongue, since the matter is so close and emotionally overwhelming that I won’t be able to write in any other language.
एक साल बीत गया और जीवन अपनी चाल से चल रहा है वैसा का वैसा।
पर गाहे बगाहे ये एहसास होता रहता है कि मेरे आसमान को ढकने वाली छत का एक हिस्सा अब खुला है।।
दादाजी से कभी मन की बातें नही की, कभी उनसे कहा नही कि कितना प्यार है उनसे, कितना अच्छा लगता है उनके साए में रहना। ज़रूरत भी नही पड़ी कहने की, पड़ती है क्या कभी ज़रूरत कहने की? उनका प्यार कहाँँ हमारी ज़रूरत का मोहताज रहा है, वे तो बस दे दिया करते थे। हम जाएं ना जाएं उनके पास , वे हमारे पास आ कर बैठ जाया करते थे। सुना करते थे हमारी बातें और समझने की कोशिश भी किया करते, ना सुनाई देती तो बस मुस्कुरा देते थे। सुनने में परेशानी थी उनको, तो हम ऊंची आवाज़ में बात किया करते थे उनसे, पर हर वक्त तो नही हो पाता था; पर वे फिर भी घुल मिल जाया करते थे। ज्यादातर अख़बार पढ़ा करते थे फुरसत में वे, पर हमारा जब मन करता उनके पास जा के बैठते और वे अख़बार अलग रख देते। आखरी कुछ सालों में चलना फिरना कम कर दिया था और भी कई परेशानियाँ होने लगी थी उनको, कभी साँस भर आती, कभी पैर सूज जाते, कभी कुछ और कभी कुछ और। पर वे हमको देख के बस मुस्कुराते ही थे। अब भी अगर उनकी तस्वीर मन में बनती है तो मुस्कुराती हुई ही बनती है। गुस्सा भी किया करते थे वे, पर परिवार के बाकी लोगों पर। हम बच्चों को तो कभी आँख भी नही दिखाई।
उनका जाना, कैसे कहूं के नही अखरता है। हाँ हम सबने खुद को समझा तो लिया है के उनके लिए यह बेहतर था, अच्छी स्थिति में नही थे वे और उनको ऐसा देख पाना भी तो कठिन था। पर अखरता नही है क्या? वे होते तो कमी न होती उनकी, यह छोटी बात है क्या? आसान रहा थोड़ा हमारे लिए इस बात को मान लेना, उनका चला जाना सह पाना क्यूंकि इतने सालों से देख पा रहे थे, धीरे धीरे उनका जाना। पर तैयार थे क्या? नही।
उस दिन जब खबर मिली तो समझ ही नही आया कि क्या हो रहा है। दुख ही नही हुआ, कैसे होता? माना कहाँ था के वो चले गए। फिर उनके शव के पास बैठ के भी बस रोते रहे, कि बाकी सब रो रहे थे। सो ही तो रहे थे वे सामने। जब उनसे अंतिम आशीर्वाद लेने को कहा गया तब मैं पीछे हटी, पर जब ज़बरदस्ती धकेला गया और दादाजी का हाथ उठा नही आशीर्वाद देने को, तो उन्हे देख कर मुझसे रहा न गया। वह वास्तविकता से आँखे मिलाने का पल था और मुझमें हिम्मत न थी। आखरी बार जब घर से विदा हो रहे थे तब जैसे दिमाग़ को सदमा लगा था, समझ आया के वे चले गए, खूब फूट फूट के रोई थी मैं। अब भी आंसू आते हैं उस दृश्य को याद कर के।
मैं व्यक्तिगत तौर पर उस पल, उस दिन, उस महीने में उनके जाने के लिए तैयार न थी। मैने तो प्लान्स बना कर रखे थे, उनको हवाई सफर पे ले जाना चाहती थी और एक साल पहले से ढिंढोरा पीट चुकी थी। सही मौसम का इंतजार कर रही थी क्यूंकि उनको दिल और सांस की तकलीफ थी। होली पर जब घर आई थी तब सोच कर ही आई थी कि अब उनको साथ ले कर जाऊंगी लौटते समय, हवाई जहाज़ से, तिरुपति बालाजी। पर वह होली ही मनहूस निकली, पिछली होली, जब फोन आया था चाचा का, जब सुबह सुबह पापा ने उठाया और कहा, दादाजी चले गए। कहां चले गए? मेरे दिमाग ने तो खुद को सुनाया कि उनकी तबियत बिगड़ गई है फिर से। जब घर में बहुत हलचल होने लगी और पापा मम्मी निकलने की तैयारियाँ करने लगे तो मैंने फिर पूछा, और तब जो सुना, वो फरमान था, जिसे में नकार नही सकती थी।
मलाल नही हैं मुझे के क्यूं उनके साथ और न रही मैं, क्यों अपने जीवन की व्यस्तता में उनका खयाल न रखा। कितना रह लेती तो उनकी अब की ये कमी पूरी हो जाती? कितना खयाल रख लेती तो उनका जाना मुझे ना अखरता? हाँ पर अब जब विवाह होगा मेरा और वे नहीं होंगे तो कमी कुछ ज़्यादा ही खलेगी मुझे | शायद उनको आस न थी पर मुझे बेहद थी की दादी और दादाजी दोनों मेरे साथ खड़े हों और मुझे विदा भी करें साथ ही | आखरी हफ्ते में दिल्ली जाने से पहले मिली थी उनसे, बैठी थी, बात की थी। खुश थे वे मुझे अपने पैरों पर खड़ा देख कर, गर्व था उनको मुझ पर। आशीर्वाद दिया था। बातें जो की थी, वो अब सोचती हूं तो लगता है, यह जानते हुए की थी के शायद आखरी बार कर रहे हैं। उनको पता था? पता ही रहा होगा। शायद पता चल ही जाता है, हमारा शरीर हमसे बेतकल्लुफ होता है, सच ही कहता है। क्या मुझे पता होता तो मैं रुकती? शायद नही। जो एक बात मेरे लिए उनका ना होना आसान बनाती है वो यही तो है के जाते नही देखा मैने उनको या बहुत साथ नही रही मैं। रही होती तो जाने देना इतना आसान ना होता। इसलिए शायद उन्होंने भी रोका नही था बहुत। कहा ज़रूर था, कि आना जल्दी। पर आसानी से जाने दिया था। हमेशा नही जाने देते थे।
मेरे तो पूरे जीवन में (और शायद सबके ही होती होगी) मेरे दादाजी की छाप है। बचपन बीता ही है दादा दादी और नाना नानी के घर। उनके साथ खेत जाना, ज़रा ज़रा सी बातों का पहाड़ बनाना और उनका लाड़ पाना। उनके साथ कहीं आना जाना, बातें करना। बड़े होते होते उनको अपने नए जमाने से रूबरू करवाना, उनकी थोड़ी से सेवा कर पाना, थोड़ा जो भी कुछ हो पाता, उन्हे समय देना। और सबसे ज़रूरी और बड़ी बात, उनका हाथ सर पर होना। इस भ्रम में जी पाना के अभी तो बच्चे ही हैं, कोई है तो सिर पर, देखने को, परवाह करने को। हैं अभी भी बड़े लोग, पर दादाजी नही हैं, और अब कभी नही होंगे, ये जानना हृदय भेद जाता है। एक कमी का एहसास आता है और मुझे घुटन होती है। पर मैं फिर से खुद को समझाती हूं और उनका मुस्कुराता चेहरा याद कर के आगे बढ़ जाती हूं। जीवन है, चलता ही रहेगा। और मैं मानू के ना मानू, सच अब यही है।
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